उत्तराखण्डः 02 NOV. 2024, जानकारी के मुताबिक संपादक की कलम से…दीपावली के पटाखों के बारे में एक बात और समझने जैसी है। यह सच है कि वे शोर मचाते हैं और वातावरण को विषैला बनाते हैं, किन्तु यह भी सच है कि वह अपने स्वरूप में हिंसक गतिविधि नहीं है। उसमें खेल-कौतुक है, बच्चों को उससे ख़ुशी मिलती है। पटाखे दर्शनीय लगते हैं। जब उन पर प्रतिबंध लगाया जाएगा- जो कि निकट-भविष्य में अवश्यम्भावी है- तो लोगों के रागात्मक-जीवन के एक हिस्से की क्षति हो जायेगी। वो उसे याद करेंगे। इसकी तुलना में ईदुज्जुहा जैसा पर्व है, जो अपनी मूल प्रवृत्ति में ही हिंसक और अनैतिक और क्रूर और पापपूर्ण है। जिसमें एक पालतू जानवर का, घर में ही बच्चों के सामने क़त्ल कर दिया जाता है। यह नृशंसता की पाठशाला है। यह देखा जाता है कि आजकल पटाखे चलाना प्रतिस्पर्धा और दिखावे का विषय बन गया है, लेकिन आज भी बहुतेरे लोग इन्हें अपनी या अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए चलाते हैं, और वैसा वे साल में एक ही दिन करते हैं।
दीपावली के पटाखे बहस का विषय बन गए हैं। यह सच है कि पटाखों से शोर और प्रदूषण होता है। देश-दुनिया में जिस तरह से प्रदूषण बढ़ रहा है, आज नहीं तो कल, वह दिन आएगा ही, जब पटाखों पर रोक लगाई जायेगी। लेकिन यह रोक केवल दीपावली के पटाखों पर ही नहीं होगी, बल्कि नए साल, क्रिसमस, शादी-ब्याह, क्रिकेट मैच में जीत के जश्न आदि पर जलाए जाने वाले पटाखों पर भी रोक लगेगी। पटाखों का उत्पादन ही जब प्रतिबंधित हो जायेगा या उनमें उपयोग की जाने वाली सामग्रियों पर ही जब रोक लगा दी जायेगी तो कोई धन्नासेठ भी क्या कर लेगा, अपने घर में तो पटाखों का उत्पादन नहीं कर सकेगा?
प्रश्न यह भी है कि पटाखों से अगर पर्यावरण को क्षति होती है, तब तो एनिमल फ़ार्मिंग पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली ग्रीनहाउस गैसों का और बड़ा कारक है और वह मीथेन का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। एनिमल फ़ार्मिंग का विरोध करते तो किसी को पाया नहीं जाता, उलटे मांसाहार का बढ़-चढ़कर समर्थन किया जाता है। तब पर्यावरण का हवाला देने वालों की बात को गम्भीरता से कैसे लिया जाए? आखिर कोई पर्यावरण-चेता या न्यायप्रिय-संवेदनशील व्यक्ति मांसभक्षी कैसे हो सकता है?
जो वास्तविक बौद्धिक होता है, उसके तर्कों में आपको इस तरह की विसंगतियाँ नहीं मिलेंगी। अगर वह पर्यावरण का हितैषी होगा तो वह देशकाल-परिस्थिति देखकर अपनी राय नहीं बदलेगा, वह हर बिंदु पर पर्यावरण-हितैषी होगा। अगर उसको पशु-पक्षियों के कल्याण की चिंता होगी तो वह हर अवसर पर उसे प्रदर्शित करेगा। वह दीपावली और संक्रांति पर पशु-पक्षियों की चिंता करके ईदुज्जुहा की मुबारक़बाद नहीं दे सकेगा और स्वयं मांसभक्षण नहीं कर सकेगा। किसी व्यक्ति को धर्म-पालन की आज़ादी होनी चाहिए या नहीं, इस पर वह कभी हाँ और कभी ना नहीं करेगा। उसकी राय में एकरूपता और निरन्तरता होगी।
मेरा मत है कि अगर किसी व्यक्ति ने ईदुज्जुहा का ज़ोरदार विरोध किया हो, वही अगर दीपावली के पटाखों का भी विरोध करता है- तो लोग उसकी बात को सुनेंगे और समझेंगे, क्योंकि उसने एक बौद्धिक मानक स्थापित किया है और उसके तर्कों में निरन्तरता है। अगर कोई व्यक्ति स्वयं शाकाहारी या वीगन है, वह अगर पटाखों से जीवों को होने वाले कष्ट का वृत्तान्त करता है, तो उसकी बात भी समझी जायेगी। जो अपना जीवन न्यूनतावादी शैली से बिताता हो, वह पर्यावरण पर उपदेश देता भी भला लगेगा। लेकिन स्वयं मांस खाने वाले या मांसभक्षण का समर्थन करने वाले, ईदुज्जुहा की मुबारक़बाद देने वाले, इस्लाम की भूलकर भी कभी आलोचना न करने वाले और एक मुँह से धर्म-पालन की संवैधानिक आज़ादी का समर्थन, दूसरे मुँह से उसका विरोध करने वाले जब स्पष्ट द्वेष या दुर्भावना से किसी हिन्दू पर्व में अपनाई जाने वाली रीतियों की आलोचना करते हैं तो वे अपनी बौद्धिक-बेईमानी को चाहकर भी छुपा नहीं पाते हैं।
मैंने सोशल मीडिया पर बहुत लोगों को दीपावली के पटाखों से हो रही असुविधा का वर्णन करते देखा। और मैं यह नहीं कहता कि वे झूठ बोलते हैं, उन्हें सच में ही असुविधा हो रही होगी। किन्तु उनका आचरण देखकर मैं यह विश्वास नहीं जगा पाता कि अगर किसी ग़ैर-हिन्दू त्योहार में यह हो रहा होता, तब भी वे इसका सार्वजनिक रूप से विरोध करते। क्योंकि हिन्दी के बौद्धिक-साहित्यिक संसार ने ऐसे दोमुँहेपन के कीर्तिमान स्थापित कर रखे हैं। आप लगभग निश्चित हो सकते हैं कि किसी रीति का विरोध और किसी का समर्थन करने से पहले वे यह जाँच लेते हैं कि यह हिन्दू-रीति है या मुस्लिम-रीति।
किन्तु यहाँ प्रश्न इस बात का नहीं है कि कुछ नेक लोग पटाखों पर पाबंदी लगाने की हिदायत दे रहे हैं और अनैतिक समाज इसे सुनने को राज़ी नहीं है। प्रश्न उस जातीय-तनाव का है, जो भारतीय-समाज में इन दिनों व्याप्त है और बुद्धिजीवियों ने अपने आचरण से इस तनाव को समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया है।