क्यों महिलाओं को श्मशान जाने से वंचित किया गया?,..आइये जाने!

उत्तराखण्डः 21-DEC. 2024, (डेस्क न्यूज)  प्राप्त जानकारी के मुताबिक भारत में आप सभी के मन में एक प्रश्न जरूर आता होगा कि सिर्फ पुरुष ही श्मशानघाट क्यों जाते हैं, घर की बहन बेटियों को अपने मां-बाप का श्राद्ध, तर्पण या उनके निमित्त एकादशी क्यों नहीं करनी चाहिए। क्या ऐसा शास्त्रों में लिखा गया है या फिर ये गलत प्रथा किसी कारणवश चालू की गई है। आज इन सभी बातों से पर्दा उठाने की कोशिश कर रहा हूं।

 जानकारी के मुताबिक  भारत में हिन्दू धर्म के अनुसार मुगल काल से पहले महिलाएं और पुरुष दोनों श्मशान घाट जाते थे और इसका उदाहरण पहले की सती प्रथा से साफ मालूम चलता है। किसी भी शास्त्र में महिलाओं को श्मशान घाट नहीं जाने की मनाही नहीं की गई है। महिलाओं को और बहन बेटियों को श्मशान घाट जाना चाहिए, परंतु जहां तक हो मजबूरी की बात अलग है, नहीं तो मां – बाप को अपने बच्चों की अर्थी को कंधा नहीं देना चाहिए।

मुगलकाल से पहले दिन में ही शादियां होती थी क्योंकि देवताओं की शादी सिर्फ दिन में ही होती है, इसका उदाहरण आप पहले विवाह के लिए उचित वर की तलाश में स्वयंवर के रूप में देख सकते हैं। रात को शादी सिर्फ भूत – प्रेत और दानवों की ही होती है। इसीलिए हिन्दू धर्म के अनुसार दिन में ही शादी होनी चाहिए ना कि रात्रि में शादी होनी चाहिए।उसी तरह मुगलकाल से पहले महिलाएं भी श्मशानघाट जाती थी और दाह संस्कार में सम्मिलित होती थी, उनके हाथों से ही दाह संस्कार होते थे।

परंतु मुगलों के आने से वो बच्चियों, महिलाओं और बहन बेटियों को उठा कर ले जाते थे, उनको जबरदस्ती दासी और रानी बना कर रखते या उनका शोषण करते थे, इसी वजह से ही रात को शादियां होने लगी और महिलाओं को श्मशान घाट ले जाना बंद हुआ, इससे भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं कमजोर होती गई और ये समाज पुरुष प्रधान बन गया। पहले घर की बागडोर सिर्फ महिलाओं के हाथ में ही होती थी और पुरुष घर के बाहर का काम करते थे।

मां – बाप या फिर पीहर पक्ष में बहन बेटियों को एकादशी या उनके निमित्त दान, धर्म-कर्म करने की मनाही की जाती है, जो कि एकदम गलत है, जिस तरह से बेटों को मां बाप का श्राद्ध करने का हक है, उसी तरह से बहन बेटियों को भी पीहर पक्ष के सदस्यों और रिश्तेदारों का श्राद्ध करने का पूरा हक है, किसी भी शास्त्र में इसकी कहीं कोई मनाही नहीं है। एक बात आप सबसे पूछनी है कि किसी के कोई भी बेटे नहीं होते तो उनका उद्धार नहीं होता है या किसी के बेटे एकदम नास्तिक हो तो उनका उद्धार नहीं हो सकता, शास्त्रों के अनुसार पड़ोसियों और अनजान का भी दाह संस्कार कोई भी व्यक्ति कर सकता है, उनके श्राद्ध कर सकता है, इससे बड़ा कोई भी धर्म नहीं होता है तो बहन बेटियों को एकादशी करने से क्यों मना किया जाता है।

बहन बेटियों को भी दाह संस्कार में भाग लेना चाहिए और अपने पीहर पक्ष के परिजनों के निमित्त श्राद्ध तर्पण और एकादशी करनी चाहिए और किसी के पुत्र नहीं हो या फिर कुपुत्र हो तो पिंड दान भी बहन बेटियां दे सकती है। बस ये सब करने के लिए शुद्ध भाव होना चाहिए।

एक बात ओर है कि आजकल देखा जाता है कि किसी की डेथ होने पर बारह दिनों के भीतर ही मैगी बनाई जाती है, चिप्स खाए जाते हैं, अस्थि विसर्जन करने हरिद्वार जाते समय प्याज, लहसुन, कैडबरी, चिप्स, पान मसाला, तम्बाकू वगैरह खाए जाते हैं, सिगरेट-शराब का सेवन किया जाता है जो कि एकदम वर्जित है। इससे बड़ा पाप कुछ भी नहीं है और इससे पितृदोष तो लगता ही है, साथ में पितृ ऋण का भार भी चढ़ता है।

किसी के घर में किसी की डेथ होने पर, उस घर के सदस्य द्वारा एक साल के भीतर गरूड़ पुराण, भगवत गीता, विष्णु सहस्रनाम, गजेन्द्र मोक्ष का पाठ अवश्य करना चाहिए और यदि भगवत गीता, विष्णु सहस्रनाम और गजेन्द्र मोक्ष का पाठ एक साल तक उस प्राणी के निमित्त कोई करवाता है तो उस प्राणी की सद्गति होना अवश्यंभावी है और स्वयं भगवान विष्णु उन्हें लेने आते हैं और वो प्राणी जन्म मरण के चक्र से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। इसके अलावा उस कुल की पीछे की सात पीढ़ियां और आने वाली सात पीढ़ियों का भी कल्याण हो जाता है, उनको भी मोक्ष मिल जाता है। एक साल के भीतर मूल भागवत का भी पाठ होना चाहिए।

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