राज्य की अनूठी परंपराएं अपनी लोकपर्व फूलदेई की एक अलग पहचान रखते हैं !राज्यपाल

  राज्यपाल ने प्रदेशवासियों को प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक फूल देई की बधाई एवं शुभकामनाएं दी।


देहरादून/उत्तराखण्ड: 14 MARCH.. 2023, खबर… राजधानी से मंगलवार को देहरादून स्थित उत्तराखण्ड राजभवन में  राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (से नि) ने समस्त प्रदेशवासियों को फूल देई की बधाई एवं शुभकामनाएं दी हैं। वही इस अवसर पर राज्यपाल ने कहा कि प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक, यह लोकपर्व समस्त प्रदेशवासियों के जीवन में सुख-शांति, समृद्धि और खुशहाली लेकर आए। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड सांस्कृतिक दृष्टि से एक अत्यंत समृद्ध प्रदेश है। वही इस राज्य की अनूठी परंपराएं जीवंत संस्कृति तथा सुंदर लोकपर्व अपनी एक अलग पहचान रखते हैं।

वही, उत्तराखण्ड का लोक पर्व फूलदेई प्रकृति प्रेम तथा पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। वर्तमान में इस पर्व की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है। आज संपूर्ण विश्व को हमारी पर्यावरण हितैषी परंपराओं और प्रकृति प्रेम की संस्कृति को जानने की आवश्यकता है। विशेषकर उत्तराखण्ड की युवा पीढ़ी को अपने लोकपर्वों एवं संस्कृति के संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार के लिए पहल करनी चाहिए।

 वही इस मौके पर राज्यपाल ने कहा कि फूलदेई बच्चों से जुड़ा पर्व है, इसलिए उत्तराखण्ड का प्रत्येक बालक-बालिका बचपन से ही अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ जाता है तथा उनमें प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव विकसित हो जाता है।

मिली ताजा जानकारी के अनुसार  उत्तराखण्ड का लोक पर्व फूलदेई प्रकृति प्रेम तथा पर्यावरण संरक्षण का  फूलदेई का त्योहार है. चैत महीने के पहले दिन इस त्योहार को मनाया जाता है. उत्तराखण्ड में  कुछ जगहों पर इसे 8 दिनों तक मनाने की भी परंपरा है।  इस पर्व को मुख्य रूप से बच्चों का त्योहार माना जाता है।  फूलदेई    त्योहार के अवसर पर  बच्चे घर-घर जाकर दहलीज पर चावल, फूल, गुड़ आदि गिराते हैं और पारंपरिक गीत गाते हैं।  ‘फूल देई छम्मा देई, द्वेणी द्वार भरी भकार, य देली स बारंबार नमस्कार’, इस गीत का मतलब है, जो आपकी देहली या दहलीज है, वह फूलों से भरी रहे और सभी की रक्षा करने वाली हो।  घर बचा रहे और भंडार भरे रहें।  इस देहली को बार बार नमस्कार।

वही इस मौके पर  गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल में लगभग हर इलाके में फूलदेई उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव की शुरुआत चैत संक्रांति से होती है। कुछ इलाकों में यह केवल चैत संक्रांति के दिन ही मनाया जाता है, जबकि कई गांवों में यह लंबा चलता है। इसे बाल उत्सव का दर्जा प्राप्त है। इसमें बच्चे ही भाग लेते हैं। बसंत और प्रकृति से जुड़ने के इस पर्व का बच्चों का लंबा इंतजार रहता है। इसके लिए गांवों में पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है। फूलों को सहेजने के लिए हर साल नई-नई टोकरी बनाई जाती है। वही माह में पहाड़ों में बांज-बुरांश के जंगलो में इन दिनों चटक लाल रंग के बुरांश के फूल खिले हुए हैं और आसपास के खेतों की मुंडेर और दीवारें पीले रंग के फ्यूली के फूलों सें ढकी हुई हैं।

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