उत्तराखण्डः 09- Jan. 2025, ब्रहस्पतिवार को देहरादून स्थित उत्तराखंड में निकाय चुनाव के लिए प्रत्याशी चुनाव प्रचार में अपनी ताकत झोंकने के साथ ही विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होकर दून की जनता को साधने में लगे हैं। वही इस दौरान सोशल मीडियों के जरिए भी वोटरों को साधने का प्रयास जारी है! वही इस बार के निकाय चुनाव में जानकारो की माने तो दारू मुर्गा नही, सोशल मीडिया सही, प्रत्याशियों की शोशेबाजी की बढ़ी गतिविधि?
वही इस निकाय चुनाव प्रचार के परंपरागत साधनों के अलावा अब यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया भी चुनावों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है। भारत में राजनीतिक दल सोशल मीडिया को प्रचार के प्रमुख साधन के रूप में अपना रहे हैं।फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, स्नेपचैट आदि जैसी वेबसाइट्स को सोशल मीडिया की संज्ञा दी गई है।
आज इस चुनाव महौल में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है वैसे ही शहर में ज्यादातर हर कार्यक्रम में अब प्रत्याशी पहुंचकर वोटरों को लुभाने के प्रयास में लगे हैं। सभी प्रत्यक्षीयो ने तरीके खोज रहे हैं, जिसके माध्यम से अधिक संख्या में वोटरों को लुभाया जा सके। इसी को लेकर अब पार्षद से लेकर मेयर तक के प्रत्याशियों की शहर के धार्मिक कार्यक्रमों में गतिविधियां बढ़ गई हैं। शहर में होने वाली श्रीमद्भागवत कथा हो या सुंदरकांड-हनुमान चालीसा का पाठ हर धार्मिक आयोजन में प्रत्याशी पहुंच रहे हैं। इस मौके पर प्रत्याशी धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होकर उसका वीडियो सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं। ताकि कार्यक्रम के साथ सोशल मीडिया से भी अन्य लोगों से जुड़कर प्रचार को ताकत दी जा सके। दून में 23 जनवरी को निकाय चुनाव है। ऐसे में प्रत्याशी अपने प्रचार को मजबूती देने में लगे हैं।
साथ ही सोशल मीडिया का अस्तित्व इंटरनेट की वज़ह से है क्योंकि इसके बिना सोशल मीडिया बेकार है। आज सोशल मीडिया एक ऐसा साधन बन गया है, जहाँ आम आदमी भी अपनी बात दुनिया के सामने रख सकता है और इसके लिये उसे कोई विशेष प्रयास भी नहीं करने पड़ते। इसी के मद्देनज़र इस बार चुनाव आयोग राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सोशल मीडिया प्रचार पर भी निगरानी रखेगा।
साथ ही सोशल मीडिया को भी आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया गया है। इसके साथ ही फेसबुक-गूगल जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने भी चुनाव को देखते हुए कंटेंट की निगरानी करने का आश्वासन दिया है।
दो दशक पीछे जाएँ तो आँखों के सामने कार, बस या ऑटो में लगे झंडे, लाउडस्पीकर से प्रत्याशी को जिताने की अपील के साथ धुआँधार नारेबाज़ी और छोटे-छोटे प्लास्टिक या कागज़ के बिल्लों के लिये लपकते बच्चों वाली चुनाव प्रचार की तस्वीर जीवंत हो उठती है। लेकिन अब यह दृश्य पूरी तरह बदल चुका है और इसकी जगह ले ली है छह इंच के मोबाइल फोन के स्क्रीन ने। लेकिन आज फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर या यूट्यूब जैसे माध्यमों पर राजनीतिक दलों के प्रचार के पीछे जनसंचार की एक थ्योरी काम कर रही है। चुनाव प्रचार के परंपरागत साधनों के अलावा अब यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया भी चुनावों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में राजनीतिक दल सोशल मीडिया को प्रचार के प्रमुख साधन के रूप में अपना रहे हैं। वही जिसमें फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, स्नेपचैट आदि जैसी वेबसाइट्स को सोशल मीडिया की संज्ञा दी गई है।
कैसे होता है सोशल मीडिया पर चुनाव प्रचार?
पिछले एक दशक में तो सोशल मीडिया चुनाव प्रचार अभियान का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा होगा, जो इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल अपनी बात रखने और प्रतिद्वंद्वियों के आरोपों का जवाब देने के लिये न कर रहा हो। जैसे- क्या जो पार्टी सोशल मीडिया में आगे रहेगी, उसके चुनाव जीतने की अधिक संभावना होगी? क्या किराए पर लोग रखकर सोशल मीडिया में बनाई गई चुनावी हवा मतदाताओं के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करती है? किसी व्यक्ति की सोशल मीडिया तक पहुँच का मतलब है कि उसके पास मोबाइल फोन या कंप्यूटर और इंटरनेट तो होगा ही। इसके अलावा उसे अंग्रेज़ी की न्यूनतम जानकारी भी होगी। लेकिन सोशल मीडिया के वर्चुअल प्रचार का वास्तविक दुनिया में विस्तार की संभावना कई रास्ते खोल रहा है और ढेरों सवाल भी खड़े कर रहा है।